वो मौसम भी अजीब था
वो लोग भी अजीब थे
वो रास्ते भी अजीब थे
वो जज्बे भी अजीब थे
जब निकल पड़े थे
आज़ादी के परवाने
सर पर कफ़न बाँध कर |
आज मुड के देखता हूँ
तो एक लौ जल रही है
और मुझसे पूछ रही है
तुम कौन हो?
तुम वो हो जो १८५७ से मेरे लीए लड़ रहे हो
या तुम वो हो जो डायर की गोली से हताहत थे
या तुम वो हो जो assembly में बम फोड़ आये
या तुम १९४२ में थे?
तुम वो हो जिसे आज माँ की आँखें देखने को बेताब है
तुम वो हो जो हमेशा से यहीं थे , और मेरे थे |
पर एक सवाल है
तुम कौन हो?
क्या तुम आज़ाद हो?
क्या तुम आज़ाद हो?
-बेखौफ
touching poem...
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